।। श्री।।
।। अथ अष्टमोध्याय:।।
श्री गणेशाय नमः । श्री सरस्वत्यै नमः।
श्री कुलदेवतायै नमः। श्री गुरुभ्यो नमः।
ईस अध्याय के आरंभ में। आओ थोड़ी चर्चा करे।
गायत्री माँ और मन्त्र के विषय में। जो शक्तीस्त्रोत है।।१।।
पाँच शीश है गायत्री माँ के । और है दस आँखे।
ताके वे देख सके। दश दिशाओं में।।२।।
एक यज्ञ के शुरुवात में। ब्रह्मजी सहचारिणी चाहे।
पत्नी सावित्री न पहोंच पाये। यज्ञ स्थल समय पर।।३।।
पत्नी के न होते हुए। यज्ञ न कर पाये।
तब ब्रह्मजी विवाह करे। पंचमुखी देवी गायत्री से।।४।।
यह देख ब्रह्माजी की। पहली पत्नी सावित्री।
बहोत ही क्रोधीत हुई। और शाप दिया ब्रह्माजी को।।५ ।।
कहे “सम्पूर्ण भूलोक के। लोग न पूजा करेंगे।
पूजाघर में न रखेंगे। ब्रह्मजी की मूर्ती”।।६।।
परिणाम इस शाप के। आज भी हम देखते।
बचे हमेशा हाय से। श्रोताओं इसी लिए। ।७।।
संत अपने दोहे में। हमेशा यही कहे।
दुर्बल को ना सताए। उस की हाय सब से बडी।।८।।
लोहा होता है बलशाली। पर जीस आग में जीव नहीं।
वह जलाकर पिघला देई। उस सामर्थ्यवान लोहे को।।९।।
सोचे जीस में जीवन है। उस की जो हाय लगे।
तो राजा भी रंक हो जाये। इस परिणाम से निश्चीत डरे ।।१०।।
क्लेश न दो कभी किसी को। किसी को न दु:ख पहोंचाओ।
नेकी करो नेकी पाओ। कर्म सिद्धांत के अनुसार।।११।।
गायत्री परब्रह्म का साकार रूप। गायत्री मन्त्र उर्जास्त्रोत।
आये मिलकर समझे अर्थ। ईस मूलमंत्र का।।१२।।
जो मूलभूत तत्व जीवन का। स्वयंपूर्ण अस्तित्व है जीन का।
परमात्मा जो पालनकर्ता। एक ही आधार इस विश्व का।।१३।।
जीस का नहीं आदी और अंत। जीस ने किया है ब्रह्माण्ड व्याप्त।
वह जन्मदाता पोषक रखक। सुखकर्ता दाता विश्व का।।१४।।
जो स्वयं मुक्त दु:खो से। केवल उस के संपर्क से।
आत्मा को दुःख न छुए। उस परम अस्तित्व को स्वीकारे हम।।१५।।
जो सर्वोत्तम, आनंदमय है। जो सब से पवित्र है।
पावनकर्ता और क्षमाशील है। उस परमात्मा के शरण आये हम।।१६।।
जीवन मृत्यू के फेरे से बचने। हम समा जाये उस में ।
योग्य मार्गदर्शन करने। अनुरोध करे उस से हम। ।।१७।।
प्रेमपूर्ण परमात्मा वे। उर्जा को हमारे।
योग्य कर्मो में लगाये।और बढ़ाये शक्ती ।।१८।।
ऊर्जा जो होगी प्राप्त। क्रियाशील सकारात्मक।
वह बस एक निमित्त मात्र। उस परम तत्व से जुड़ने के लिए।।१९।।
उस परमात्मा के गुण। करे मन ही मन स्मरण।
और उसी से जूड़ जाए हम। यह अर्थ है गायत्री मन्त्र का।।२०।।
ब्रह्मपत्नी गायत्री। माता चार वेदों की।
उन की कृपा से हो ग्रंथपूर्ती। उन का आशीर्वाद श्रोते पाए।।२१।।
गायत्री मन्त्र मन में स्मर । गायत्री माँ के चरण स्पर्श कर।
ब्रह्म गायत्री का आशीष पाकर।अगली कथाये निवेदन करू।।२२।।
झरने व्याकुल जितने।सागर से मिलने ।
हम भी उत्सुक उतने। माॅं की कथायें सुनने को ।।२३।।
जानकी माँ की पाँच बेटीया। और एक सुपुत्र हुआ।
वत्सला, तारा, चिमणा। बापू, कुसुम और कलावती।।२४।।
ऐसे नाम बच्चों के। बड़े से छोटे, क्रम से।
घर भरा नाती नतनियों से। बेटियों के विवाह के बाद।।२५।।
गाये थी गौशाला में। धान्य उगे खेतों में।
सारा कुछ था घर में। किसी बात की कमी न थी।।२६।।
जानकी माँ की शांत प्रवृत्ती। किसी बात की न उन्हें आसक्ती।
मन में रहे सदा भक्ती। परमार्थ प्राप्त करे ।।२७।।
पर पती के लक्षण निराले। दादा थे गुस्सेवाले।
उन को ज़रा भी ना चले। वर्तन मन के विरुद्ध ।।२८।।
नवरात्री के दीनों में। घर के आगे, आँगन में।
गरबा खेले गाव में। सारे बड़े बच्चे।।२९।।
रंग चढ़े गरबे में जैसे। माँ को बुलाये सारे बच्चे।
कहे “गरबे में गाये नाचे। आकर हमारे संग।।३०।।
भक्ती का एक प्रकार गरबा। उस में न कोई छोटा बड़ा।
पर विरोध करे दादा। कहे बचपना शोभा न दे।।३१।।
पर कहे जानकी माँ। अधिकार गरबा खेलने का।
छोटों के संग बड़ों का। बड़ा छोटा न कोई भक्ति में।।३२।।
जैसे देर हो घर आने। दादा लगे बार बार चीडने ।
उन के सुने रोज़ ताने। मुख से न बोले एक अक्षर।।३३।।
पर किस्सा बना यह रोज़ का। संयम छुटा जानकी माँ का।
सोचे एक ही तरीका। समझाने का पती को ।।३४।।
उसी समय रात में। आग लगे घर में।
लोग इकट्ठे हुए आँगन में। बड़ी ज्वालाए देख कर ।।३५।।
पड़ोसी घरवालों को जगाये। दादा जाग कर जब देखे।
तो घर में शोले भड़के। देख कर डर गये वे।।३६।।
जहां लगी थी आग। उस कमरे में था सुखा घास।
सुखी लकडीयां थी आस पास। इंधन था आग के लिए।।३७।।
सारे गाववाले मिल कर। पानी फेके मटके भर कर।
ढेर सारा पानी फेक कर। भी ना बुझे आग वह।।३८।।
इतना सब कुछ हो रात भर। पर जानकी माँ को न लगे डर।
एक कोने में बैठ कर। सारा तमाशा देखे।।३९।।
तब दादा समझे मन में। क्यों के गरबे के बारे में।
खूब टीका की थी उन्हों ने। देवी माँ ने सबक सिखाया ।।४०।।
जब उषःकाल हुआ। हर प्रयत्न निष्फल हुआ।
घर की आग बुझाने का। तब क्षमा मांगी माँ से।।४१।।
साष्टांग किया नमन। कहे करो रक्षण।
अग्नि का करो शमन। शरण आया तुम्हारे।।४२।।
लेकर तीर्थ का प्याला। माँ के हाथ में दिया।
और उन से कहा। छिड़कने अग्नि पर।।४३।।
जानकी माँ स्वयं उठ कर। ॐ शांती शांती कह कर।
अपने हाथो से तीर्थ छिड़क कर। शांत करे अग्नि नारायण।।४४।।
ढेर सारे पानी से। जो अग्नी न बुझे।
केवल तीर्थ छिड़कने से। वह झट से बुझ गया ।।४५।।
सुखी लकडियाँ और घास। कमरे में था ख़ास।
उस को भी न लगे आंच। आश्चर्य हो सब को।।४६।।
कितने दीनों तक निकले । जमीन से जलते कोयले।
वह सारे खोद कर निकाले। अग्नी का शमन करने।।४७।।
तब समझे दादा। जानकी शांत रहे सदा।
पर कभी संयम ढला। तो कोई न बच सके।।४८।।
अब सुनो कथा दूसरी। नंद कलावती की।
चिंता उस के विवाह की। सताए घर के लोगों को।।४९।।
मुरलीधर वासकर लड़की देखे। और पसंत करे उसे।
पर घर कलावती के। चिंता करे सारे लोग।।५०।।
कहे नेक है लड़का। पर उस के नहीं है माता पीता।
और छः भाईयों का भ्राता। बेटी पर पड़ेगा काम का बोझ।।५१।।
यह रिश्ता ठुकराने में। भलाई समझे घरवाले।
पर जानकी माँ कहे। बेटी खुश रहेगी सदा ।।५२।।
कहा मानकर माँ का । घरवालों ने हाँ कहा।
पर स्त्री सदस्य नहीं था। वासकारों के घर में।।५३।।
तब माँ कहे “मुझे। आप अपनी माँ समझे।”
और विवाह के कार्य में। पुरा करे सहाय।।५४।।
मराठी लोगों का। शुभ कार्य शुरू करने का।
तरीका हल्दी पीसने का। हल्दी पीसे मिल के स्त्रीयां सारी।।५५।।
लोकगीत मुख से बोले । चक्की में हल्दी डाले।
तो कुंकुम निकले। जैसे घुमाए चक्का ।।५६।।
बाकी औरते आश्चर्य करे। ऐसे दो मुठ्ठी कुंकुम निकले।
माँ वह नववधू को दे। कहे “सुखी रहो सदा।।५७।।
रोज़ तीन चिमटी ले। और माथे पर लगाए।
दूसरा तीन चिमटी मिलाये। इस कुंकुम के अन्दर”।।५८।।
ऐसे शुभ शकुन से। जानकी माँ के अशिर्वाद से।
नए जीवन की शुरुवात करे। मुरलीधर वासकर।।५९।।
चमड़े के कारखाने में नौकरी थी । खुद के कारोबार की इच्छा थी।
पड़ोस की जगह किराये पर ली। और भाग्योदय हुआ।।६०।।
धंदे की शुरुवात करी। छोड़ दी नौकरी।
बने बड़े व्यापारी। जानकी माँ की कृपा से।।६१।।
सज्जन सुळे नाम के। मन से सीधे भोले थे।
भक्त बने एक साधू के। साधू था लफंगा।।६२।।
सुळेजी से पैसे लुटे। नाम पर देवी सेवा के।
और बेटियों से उन के।हमेशा सेवा चाहे वह। ।।६३।।
सुळेजी माने साधू की हर बात । पत्नी से मांगे मंगलसूत्र।
कहे “जीए बैरागीयों की तरह। देवीकृपा पाने के लिए”।।६४।।
नवरात्री के दीनो में। साधू चले गाये पुणे।
यज्ञ विधी करने। नापसंती दिखाए घर के लोग।।६५।।
बेटियाँ कहे घर में। “हम न रहेंगे सेवा में।
इस भोंदू साधू ने। जीना हराम किया है”।।६६।।
सुळेजी न समझे बात। ऐसे मे आया चैत्र मास।
हलदी कुंकुम का था समारोह। उनकी पत्नी माँ के घर आयी ।।६७।।
बैठे एक कोने में। माँ उन्हें बुलाये सामने।
कहे “लूट लिया उस साधू ने। अब तो खोलो अपनी आँखे”।।६८।।
कुंकुम लिया हाथ में। कुंकुम लगा लगातार उड़ने।
कहे “यही किया साधू ने। तुम्हारे घर के साथ।।६९।।
साधू ऐसे नचाये घर । उस की इच्छा के अनुसार।
ले जाओ कुंकुम अपने घर। और लगाओ घर के लोगों को”।।७०।।
जैसे कुंकुम लगाया। सब का मन शुद्ध हुआ।
साधू भी ना लौट कर आया। समझा न चलेगा वशीकरण।।७१।।
इस से एक सबक सीखे। श्रद्धा ज़रूर रखे।
पर अंधश्रद्धा से बचे। विश्वास न करे परीक्षा बीना।।७२।।
ताराजी आयी थी माइके। गणदेवी आयी बड़ोदा से।
तब पती उन के। बड़ोदा में ही थे।।७३।।
वे थे क्रिकेट खेल रहे । उस समय ज़ोर से।
गेंद के प्रहार से। नाक से खून निकल आया ।।७४।।
जब खून नहीं रूका। अस्पताल में दाखल किया।
डाॅक्टर कहे शल्य चिकित्सा। करेंगे, अगर हड्डी टूटी हो।।७५।।
उसी समय गणदेवी में। जानकी माँ पती से कहे।
“तारा को भेज दे। कल सबेरे बड़ोदा”।।७६।।
ऐसे सब से कह कर। बरामदे में आयी दौड़ कर।
सारे आये बाहर। क्या हुआ देखने ।।७७।।
जब सारे देखे। खून बहे नाक से।
तब माँ कहे सब से। किस्सा बड़ोदा के जमाई का।।७८।।
कहे “जमाईजी को लगा। गेंद का घाव जोर का।
वही मैंने झेल लिया। इस लिए नाक से खून बहे।।७९।।
जमाईजी का खून न रुके। मुझे याद है कर रहे ।
बेटी को शीघ्र ही भेजे। प्रसाद देती हूँ उन के लिए”।।८०।।
जैसे चलने की तैयारी करे। तो तार हाथ में मिले।
माॅं कहे “चिंता ना करे। कुंकुम मूह में डाले जमाई के”।।८१।।
जैसे पहुंचे बड़ोदे। अस्पताल गयी सीधे।
खून बहना न रुके। बेहोश थे पती ताराजी के।।८२।।
करना चाहे डॉक्टर। शल्य चिकित्सा रुग्ण पर।
कर ना पाए पर। बेहोशी की हालत में।।८३।।
जब ताराजी बैठी पास। तब पती को आया होश।
कहे “माँ की लगी आस। काश आती मुझे देखने”।।८४।।
ताराजी कहे पती से। “माँ को साथ लाई हूँ मै”।
प्रसाद बताये दूर से। कुंमुम लगाए नाक पर।।८५।।
मिश्री मिला कर पानी में । पती को दे पीने।
जैसे लगे मिश्री का पानी पिने। खून बहना बंद हुआ ।।८६।।
यह देख डॉक्टर दंग रहे। अस्पताल से घर भेजे।
ताराजी पती को ले। शाम को घर गयी।।८७।।
ऐसे हरी परपीड़ा। दूसरों का दुःख स्वयं झेला।
ऐसे जानकी माँ की लीला। वर्णू कैसे शब्दों में।।८८।।
लक्ष्मणराव प्रधान। माँ के भक्त सज्जन।
गये लेने दर्शन। जब अठरा साल के थे।।८९।।
माँ के चरण छुए उन्हो ने । उन्हें फूल दिए माँ ने ।
अंजली भर पूजा करने। फूल लिए बैठे लक्ष्मण।।९०।।
तब माँ पूछे उन से। “क्यों हो अब तक रुके?”।
तब माँ से वे पूछे। “क्या करू इन फूलों का?”।।९१।।
तब माँ कहे उन से। “मंदिर महादेव के।
जाकर फूल अर्पण करे। वे स्वयं देंगे दर्शन तुम्हे।।९२।।
और पूछेंगे तुम्हे। क्या आस है मन में।
बेझिझक हो मांग ले। भाग्योदय करेगा शिव भोला”।।९३।।
लक्ष्मण गये मंदीर। देखे शिवलिंग की ओर।
भक्ती से करे नमस्कार। तो देखा एक विचित्र वृद्ध।।९४।।
उस वृद्ध व्यक्ती ने।शिव लिंग पर पैर थे रखे।
जब लक्ष्मण यह देखे। तिरस्कार जागा मन में।।९५।।
लक्ष्मण को देखे जैसे।वह पूछे लक्ष्मण से।
“आये हो कीस आशा से?। क्या चाहिए तुम्हे”।।९६।।
देख कर उस का वर्तन। चौंक गये लक्ष्मण।
कहे “मुझे करना है पूजन। हटाये पैर शिवलिंग से”।।९७।।
वृद्ध हसे मन ही मन। लक्ष्मण ने कीया पूजन।
फूल किये अर्पण। जब हटाये पैर वृद्ध ने।।९८।।
लौटा घर माँ के। तब जानकी माँ पूछे।
“शीव भोलेनाथ के। कैसे रहे दर्शन” ।।९९।।
तब लक्ष्मण ने बताया। मंदिर में जो कुछ हुआ।
“एक असभ्य वृद्ध था आया। जीस ने शिवलिंग पर थे पैर रखे।।१००।।
अनादर किया शिवलिंग का। तिरस्कार मेरे मन में जागा।
उसी ने मुझ से प्रश्न किया। “कौन सी आस लिए आया है”।।१०१।।
मैंने उस से कुछ भी न चाहा। शिवलिंग से उस का पैर हटवाया।”
जोर से हस कर माँ ने कहा। “शिवजी थे वृद्ध का रूप लिए।।१०२।।
तुम्हे बताकर भेजा था मैंने। फिर भी तू न पहचाने।
खोया मौका, दर्शन पाया तुम ने। वह खाली न जाएगा”।।१०३।।
यह सुन कर हुआ पछ्तावा । इतना समझा कर था भेजा।
फिर भी कैसे मन भटका। आँख भर आयी उन की।।१०४।।
लक्ष्मण की पीठ पर प्रेम से। हाथ फेर कर माँ कहे।
“जीवन बीतेगा सुख शांती से। शायद समृद्धी का लाभ न होगा”।।१०५।।
जैसे जानकी माँ ने कहा। बिलकुल वैसे ही हुआ।
शांतिपूर्ण जीवन पाया। और निवृत्त हुए प्रधानजी।।१०६।।
संत देते है मौका। पर दोष सारा भाग्य का।
जानकर भी भ्रम है होता। मौक़ा छूटे हाथ से।।१०७।।
जानकी माँ की ऐसे। अगाध है लीलाए।
जो मन से शरण जाए। माँ उसे संभाले सदा।।१०८।।
।। ईती श्री जानकी छाया ग्रंथस्य अष्टमोsध्यायः समाप्तः।।
।। शुभं भवतु ।।
।। श्रीरस्तु।।
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