।। श्री।।
।। अथ सप्तमोध्याय:।।
श्री गणेशाय नमः । श्री सरस्वत्यै नमः।
श्री कुलदेवतायै नमः। श्री गुरुभ्यो नमः।
आरंभ में इस अध्याय के। गुरु सुनिए दत्त गुरु के।
नैसर्गीक गुरु संन्यासीयों के। सुन कर आश्चर्य पाओगे।।१।।
पहेली गुरु धरती माँ। उस से क्षमाशीलता सीखना।
वे हमें करे क्षमा। उसे कष्ट देने पर भी।।२।।
दूसरा गुरु वायु किया। जो भटके हर दिशा।
पर किसी जगह से न जुड़ा। आसक्ती के कारण।।३।।
तीसरा गुरु आकाश माने। जो अपने आप में।
सब कुछ समा ले। सारा स्वीकारे बड़े मन से।।४।।
चौथा गुरु पानी को माने। पीकर ऊर्जा मिले हमें।
शुद्ध बने नहाकर जीस में। जैसे संतों का सहवास।।५।।
गुरु पांचवा अग्नी है। जो स्वयं उर्ध्वगामी है।
अगर वस्तु गुज़रे उस से। तो अशुद्धता जले, शुद्धता पाये ।।६।।
छठा गुरु चन्द्रमा है। जो बढ़ता घटता दीखता है।
पर न बदले वास्तव में। देह और आत्मा ऐसे ही है।।७।।
गुरु सातवा सूर्य है। स्वयं दुषीत न हो अँधेरे से।
अँधेरा छुए तो प्रकाश हो जाए। ज्ञानी की वृत्ती ऐसी हो।।८।।
एक शिकारी ने कबूतरों के। बच्चे जाल में पकडे।
उन्हें देख कूद पड़े। माता पिता भी फसे जाल में।।९।।
सीख ली कबूतरों से । अधःपतन होता है लगाव से।
अज़गर को नववा गुरु माने। जो हर स्थिती में खुश रहे।।१०।।
जब कोई पास गया। उसे खा कर पेट भरा।
अन्यतः वायुभक्षण किया। ऐसी हो सन्यासी की प्रसन्न वृत्ती ।।११।।
दसवा गुरु सागर है। जो नदियों को समाये।
उन के होने न होने से। न बढे या घटे उस की परिपूर्णता।।१२।।
पतंगा गुरु ग्यारहवा। जो अग्नी से आकर्षित हुआ।
देख बाहरी सुन्दरता। और जला अज्ञान से।।१३।।
मधुमक्खी को बारहवा गुरु माने। जो पराग उठाये।
अलग अलग फूलों से। वैसे शिष्य की वृत्ती हो।।१४।।
जहां जहां से ज्ञान मिले। हर उस स्थल को जाए।
और ज्ञान प्राप्त करे। आलस न करे ज्ञानार्जन में।।१५।।
तेरहवा गुरु हाथी है। जो बहोत बलवान है।
पर स्पर्श को साथी के। पाने की इच्छा न रोक पाये।।१६।।
इसी बात का लाभ उठाये। शिकारी फास ले उन्हें।
मोह से दूर रहे। ऐसी सीख मिले यहां।।१७।।
चौदहवी गुरु चिटी है। जो धान जमा कर रखे।
पर न उस को दान करे। इसी लिए मारी जाए बाक़ी कीटकों से।।१८।।
संचय करने के अंत में भी। कुछ न पाए वह चिटी।
इसी तत्व से हम भी। दान करे यथायोग्य ।।१९।।
पंद्रहवा गुरु हिरन है। जो सुन्दर संगीत के।
मोह से मारा जाए। संगीत शिकारी की चाल थी।।२०।।
संगीत भक्तीपूर्ण हो। जो भक्तिमय न हो।
वह संगीत मनुष्य को। खींचे अनुचीत कार्य में।।२१।।
जो स्वादिष्ट अन्न की आस लिए। मछवे के आंकड़े में फसे।
सोलहवा गुरु मछली, सिखाये। जिव्हा के चोचले दूर रखे।।२२।।
अवधूत बैठे थे एक तरु तले। तब वेश्या पिंगला दिखे।
मन में जो ग्राहक की आस लिए। चक्कर काट रही थी छज्जे में।।२३।।
सोचे “जो प्रभु मेरे मन में। मेरी राह है तक रहे।
सच्चे मन से पाऊ उन्हें। हट कर गलत राह से।”।२४।।
प्रभु स्मरण से जो पावन हुई। वह पिंगला गुरु सतरहवी।
उस से सीख ऐसी पाई। प्रभु चिंतन से नेक राह मिले।।२५।।
छोटे पक्षी के मुख से। जब मास का टुकड़ा गीरे।
तो बड़े पंछी उसे छोड़े। मास की ओर आकर्षीत हो कर।।२६।।
जो पीछे भागे भौतिक सुखों के। बहोत प्रतिस्पर्धी होते है उस के।
जो भौतिक सुखों को त्यागे। वह शांती पाये, यह सीख ली।।२७।।
बच्चे गुरु उन्नीसवे। जो झट से आपसी मतभेद भूले।
और फिर से खेले। अपने मित्रों के संग।।२८।।
गुरु बीसवी एक किशोरी। खनके हाथ में चूड़ियाँ जीस की।
अंत में एक ही चूड़ी रखी। ताके आवाज़ न हो।।२९।।
दो में व्यर्थ बाते, एक में शांती । यह बात उस से सीखी।
और एकाग्रता सीखी। बाण बनानेवाले से।।३०।।
वह जब बाण बना रहा था। जुलुस की ओर ध्यान न बटा।
उसे माने गुरु इक्कीस वा। तितली की इल्ली बाईसवी गुरु ।।३१।।
तितली का आदर्श इल्ली पाये। अंत में स्वयं तितली बन जाए।
वैसे ही शिष्य गुरु सा बन जाए। गुरु का अनुसरण करने से।।३२।।
तेइसवा गुरु साप है। जो दुसरे के बिल में रहे।
अपना घर ना होने से। ना रहे चिंतीत या पिडीत।।३३।।
चौबीसवा गुरु मकडी बने। जो स्वयं जाल बुने।
वैसे ही मनुष्य आस पास बुने । मिथ्य का जाल चारो ओर।।३४।।
इन सारे गुरुओ से। आओ हम भी सीख ले।
और अगली कथा सुने। उस अवधूत का चिंतन कर।।३५।।
जैसे पानी से मिटे प्यास। इच्छापुर्ती की आस।
माँ की कथा से ख़ास। मिटे बिलकुल वैसे ही ।।३६।।
एक बार कुसुमजी के । घरवाले पिडीत हुए।
घर में शांती ना रहे। पिशाच बाधा के कारण ।।३७।।
कोई हो बीमार। कोई करे पागल सा व्यवहार।
परेशान हो सारा परिवार। उपाय ना पता चले।।३८।।
ननंद को हुआ पीलिया। तब उन्हों ने माँ को बताया।
काला को बुला लिया। घर में मदत करने।।३९।।
कहे “काला रहेगी घर। बढेगा हमारा मनोबल।
ना करो उसे भेजने देर। शीघ्र ही भेज दे”।।४०।।
काला जाने की तैयारी करे। रात में खुजली होने लगे।
दाद से परेशान हो जाए। जा ना पाये चाह कर भी।।४१।।
पढ़ कर हाल बेटी का । जागी माँ की ममता।
जा पहुँची बड़ोदा। कुसुमजी के घर।।४२।।
पिशाच बाधा करी दूर। पीड़ितों का बदला नूर।
पीलिया भी भगाया पार। ऐसी अद्भूत लीलाए माँ की।।४३।।
घर में हुई शांती। डर से पायी मुक्ती।
तब काली माँ की भक्ती। करने पहुंचे सारे पावागढ़ ।।४४।।
दोसौ सीडीयाँ चढ़ कर। पहुंचे जब मंदीर।
दोपहर के प्रहर। तो मंदीर बंद करे पुजारी।।४५।।
पुजारी उन सब से कहे। “इस समय वापस जाए।
सांझ प्रहर को लौट आये। दर्शन न हो पाये अब”।।४६।।
भोजन का समय हुआ। सो मंदीर को ताला लगाया।
कोई न उसे रोक पाया। चला द्वार बंद किये ।।४७।।
तब सारे उस से कहे। “दो सौ सीडियां चढ़ कर है आये ।
अब हिम्मत ना रहे। उतर कर वापस चढ़ने की।।४८।।
दूर से आये दर्शन करने। दोपहर की कड़ी धुप में।
अब निराश न कर हमें। भूक भी बहोत लगी है।।४९।।
थोड़े कष्ट उठा कर। कृपया खोले महाद्वार।
दर्शन लेंगे सत्वर। बिना विलम्ब चले जायेंगे”।।५०।।
भूके थे सारे, कुछ न था खाने। पर पुजारी बात ना माने।
वह लगा सीडीया उतरने। महाद्वार बंद कर गुस्से से।।५१।।
सारे मन में सोचने लगे। क्या देवी माँ यही चाहे।
बगैर दर्शन ले चले जाए। इतनी कठोर कैसे हुई माँ।।५२।।
जब वह लगा उतरने। भ्रमर आये उसे काटने।
तब वापस लगा लौटने। कहे “मुझे बचाओ माँ ।।५३।।
भक्त प्यासे दर्शन के। न समझा उन की भावनाए।
द्वार खोलू बचा लो मुझे। अपराध की क्षमा करो”।।५४।।
देख कर हाल उस के। सारा परिवार हसने लगे।
जानकी माँ भवरों से कहे। वापस लौट जाने के लिये।।५५।।
कहे “पुजारी है तैयार। खोलने मंदिर के द्वार।
ना करे उसे बेज़ार। क्षमा कर लौट जाए” ।।५६।।
माँ की बात मान कर। चले गए वहां से भ्रमर।
पुजारी खोले महाद्वार। सारे काली माँ के दर्शन ले।।५७।।
प्रसन्न मूर्ती काली माँ की। इच्छा पूर्ण करे भक्तों की।
करे सारे आरती उन की। विनम्र श्रद्धा भाव से।।५८।।
करे मन से भजन । और करे पूजन।
झुक कर करे वंदन। सारे काली माँ को।।५९।।
जैसे जानकी माँ फैलाये हाथ । बर्फी का डब्बा हुआ प्रकट।
सारे हुए आश्चर्य चकित। पुजारी भी देखते रहे।।६०।।
कहे “काली माँ ने मन से। ढेर सारे आशीष दिये।
सब की भक्ती स्वीकार के। प्रसाद दिया है सब को”।।६१।।
प्रसाद दे पुजारीजी को। कहे “प्रसन्न रखे भक्तों को।
तब ही देवी की कृपा को। पात्र होंगे निश्चीत”।।६२।।
पुजारी छुकर माॅं के चरण। कहे “सुधारुंगा अपना आचरण।
करूँगा हमेशा सद्वर्तन। सारे भक्तों के संग”।।६३।।
सारे निकले वहाँ से। चलने लगे मज़े से।
तो शेर की दहाड़ से। भयभीत और कम्पित हुए।।६४।।
डर कर इकट्ठे खड़े रहे। व्याघ्र दहाड़ कर सामने आये।
माँ उस के पास जाए। हाथ फेरे प्यार से।।६५।।
जानकी माँ शेर से कहे। “शांत हो कर लौट जाए।
ईच्छापुर्ती करूंगी मै। चिंता न करे ज़रा भी”।।६६।।
जानकी माँ की आज्ञा लेकर। और माँ को वंदन कर।
वह शेर नतमस्तक होकर। भाग गया वहाँ से।।६७।।
पसीना पोंछ माँ से कहा सब ने । “आप सी हिम्मत नही हम में।
प्यास से गला लगे सुखने। शेर को प्रत्यक्ष देख कर”।।६८।।
कहा जानकी माँ ने । “डर गए सारे बेकार में।
व्याघ्र आया मुझ से मिलने। वाहन शेरावाली का”।।६९।।
पर डर से था गला सुखा। शोध कर रहे थे पानी का।
तब एक सुन्दर बालिका। आयी उन के सामने।।७०।।
रेशमी घागरा पहना था। हाथ में कलश था चांदी का।
स्मित हास्य कर पानी बाटा। सब को चांदी के प्याले में।।७१।।
जैसे चली गयी वो। सारे पूछे एक दुसरे को।
“कौन कहाँ से आयी वो। पानी पिलाने इस जंगल में”।।७२।।
तब कहे जानकी माता। वो न थी साधारण बालिका।
वो साक्षात् थी कालिका। पानी पिला कर चली गयी।।७३।।
मैंने उसे पहचाना था। वह करे भक्तों की रक्षा।
उस पर सोपों सारी चिंता। वह संभालेगी तुम्हे”।।७४।।
सारे लोग खुशी से । अपने अपने घर गए।
जीवन भर ना भूला पाए। यह सुन्दर प्रसंग।।७५।।
आत्माराम खोपकर नाम के । भक्त थे जानकी माँ के ।
प्रयत्न कर रहे थे। अच्छी नौकरी पाने के लिए।।७६।।
लाचार थे गरीबी से । ढंग की नौकरी भी ना मिले।
तब माँ के चरण धरे। और करे प्रार्थना।।७७।।
उन से कहा माँ ने। फोटोग्राफी सीखने।
यश मिलेगा उस क्षेत्र में। माँ के शब्दों पर विश्वास करे।।७८।।
पर कॅमेरा खरीदने के। पैसे नहीं थे पास उन के।
फिर भी ख़रीदे उधारी से। और सीखे फोटोग्राफी।।७९।।
नौकरी मिली महाराष्ट्र के। सरकारी दफ्तर में।
यश पा कर स्थित हुए । उच्च पद पर कृपा से।।८०।।
एक दिन समुद्र में मुंबई के। माल उतरे जहाज से।
पता न चले उस में कैसे। विस्फोट हुआ सबेरे।।८१।।
घर गीरे झटके से। लोग डरे मुंबई के।
सोने की ईटे जहाज से। फेंकी गयी बाहर।।८२।।
उस में फ़ैली एक खबर। होगा विस्फोट एक और ।
पानी आएगा शहर के अन्दर। फिर भी पहुंचे वहां खोपकरजी ।।८३।।
मन ही मन डर लगे। पर कर्तव्य को ना चुके।
फोटो ले घटना स्थल के । तब ही हुआ दूसरा विस्फोट।।८४।।
देखे, जहाज से उड़ती ईंटें। ऊपर तक पानी के छींटे।
आग की लाल ज्वालाए समेटे। हाथ फैलाये आकाश को।।८५।।
ईंटों के फेंके जाने से। खोपकरजी डरे थे।
आँखे बंद कर बैठे थे। जानकी माँ का स्मरण कर।।८६।।
एक ईंट आयी जोर से। लगी कंधे पर खोपकरजी के।
आभार माने जानकी माँ के। दर्द ना करे इस लिए।।८७।।
गणदेवी जाकर। माँ के दर्शन लेकर।
कहे “कैसे चुकाऊं यह उपकार। बचाया प्राण संकट से”।।८८।।
तब माँ हस कर कहे । “तुम्हारे दुःख मैंने सहे।
प्रत्यक्ष वहाँ आकर लिए। घाव अपने कंधे पर”।।८९।।
तब दिखाए बाँयां कंधा। उस पर ईंट का निशान था।
गहराई तक पहुंचा था। कृतज्ञ हुए खोपकरजी।।९०।।
माँ की देख कर लीलाए। आसुओं से चरण धोये।
आगे खूब तरक्की पाए। धन प्रतिष्ठा मिले उन्हें।।९१।।
फोटोग्राफी के क्षेत्र में। अनेक पुरस्कार पाए उन्होने।
आशीष हो माँ के जिन्हें। उन का बुरा कैसे हो।।९२।।
कुसुमजी सुले नामक। थी महिला एक।
मन से बिलकुल नास्तिक। भगवान को ना माने जो।।९३।।
कहे “जो लिखा हो भाग्य में । वही सच हो भविष्य में।
भाग्य को करना वश मे। ईश्वर को भी असंभव है” ।।९४।।
उसे थे एक बेटा एक बेटी। ना चाहे और संतती।
सो शल्य चिकित्सा कर लेती। ना चाहे गर्भाशय शरीर में।।९५।।
पर दुर्भाग्यवश अकस्मात ही। एक दुर्घटना घटी।
पुत्र ने जान खो दी। टूट गयी कुसुम बेचारी।।९६।।
किसी पहचानवाले ने। बताया जानकी माँ के बारे में।
दुःख से विव्हल कुसुम ने। माँगा सहारा माँ का।।९७।।
उस से कहा माँ ने। “गर्भाशय निकाल फेका तुम ने।
अब क्या कर सकू मै। भाग्य कैसे कोई बदल सके।।९८।।
तब सोचा नहीं अभिमान कर। विश्वास करो अब मुझ पर।
मै प्रयत्न करूंगी अगर। तुम चाहो तो” ।।९९।।
विनम्र हो कर कुसुम कहे। “आप का कहना मानूंगी मै।
पुत्र प्राप्ती के आशा से। आयी हूँ आप के शरण।।१००।।
जब तक ना हो चमत्कार। विश्वास ना हो भगवान पर।
इच्छा पुरी हो एक बार। आजन्म रहूंगी ऋणी।।१०१।।
कुसुम को कहे जानकी माँ। करने एक उपासना।
कुसुम ने की वह साधना। कुछ महीने पुरे श्रद्धा से।।१०२।।
और असंभव संभव हुआ। गर्भाशय उत्पन्न हुआ।
डॉक्टरों को आश्चर्य हुआ। जब करी कुसुम की चिकित्सा।।१०३।।
इस चमत्कार से प्रफुल्लीत हुई। इच्छा पुत्र प्राप्ती की।
उस के मन में उत्पन्न हुई। गयी शरण जानकी माँ को ।।१०४।।
माँ के चरणों में लीन हुए। मन में पूरा विश्वास लिए।
जानकी माँ से कुसुम कहे। “अब पुत्र संतान दो”।।१०५।।
कुसुम फैलाए आँचल। उस में माँ ने डाला श्रीफल।
कहे “तुम्हारी कामना हो सफल। लो आयुश्यमान पुत्र दिया”।।१०६।।
कुसुम हुई गर्भवती। पुत्र संतान की हुई प्राप्ती ।
ऐसे उस की इच्छापूर्ती। हुई माँ को शरण जाने से।।१०७।।
जीस पर माँ की कृपा हो। असंभव भी संभव हो।
सारी इच्छाए पूर्ण हो। माँ के कृपाशिर्वाद से ।।१०८।।
।।ईती श्री जानकी छाया ग्रंथस्य सप्तमोsध्यायः समाप्तः।।
।।शुभं भवतु।।
।।श्रीरस्तु।।
Leave a Reply