।।श्री।।
।। अथ प्रथमोध्याय: ।।
श्री गणेशाय नमः । श्री सरस्वत्यै नमः।
श्री कुलदेवतायै नमः। श्री गुरुभ्यो नमः।
श्रीगणेशजी का स्मरण। करते है सारे जन।
जब आरंभ करे कोई भी काम। यश प्राप्त करने के लिए ।।१।।
श्री गणेश के नाम बारह । वक्रतुंड महाकाय।
एकदंत नाम द्वितीय । कृष्णपिंगाक्ष और गजवक्र।।२।।
पांचवा लम्बोदर। छठा विकटमेव और ।
सातवा विघ्नराजेंद्र। धूम्रवर्ण और भालचंद्र ।।३।।
विनायक दसवा । गणपती ग्यारहवा।
गजानन बारहवा। ऐसे शुभ नाम बारह है ।।४।।
लेकर बारह नाम गणेशजी के । शुरू करु चरित्रमृत लिखने ।
ताके पाऊ आशीष उन के। फलाप्रप्ती हो श्रोताओं को ।।५।।
जो शुभ्र वस्रो में। मोर पर है बैठे।
जगत में ज्ञान बाॅंटे। धन्या देवी सरस्वती ।।६।।
हाथो में वीणा लिए। जो प्रसन्न मुख से।
भक्तों को आशीष दे। उस आशीष के प्यासे हम ।।७।।
उन की कृपा से । गुंगा वाचा पाए ।
लूला पार कर जाये। हिमालय पर्बत को ।।८।।
सरस्वतीजी के आशीर्वाद से। श्रोते विद्या ज्ञान पाये।
यह ग्रंथ सफल हो जाए। यही उन से प्रार्थना ।।९।।
पश्चात सरस्वतीजी के। स्मरण करू लक्ष्मीजी के।
जो इस जग में धन बांटे। ध्यान रखे भक्तों का ।।१०।।
जो कमल पर विराजमान। भक्तों का देख निर्मल मन।
हाथ से जिन के बरसता धन। ऐसी कृपालु लक्ष्मी माँ ।।११।।
उन की कृपा जो बरसे। निर्धन भी महल बांधे।
अवकृपा से जिन के। राजा भी रंक हो जाय ।।१२।।
लक्ष्मीजी के चरण स्पर्शु। मन ही मन उन्हें प्रार्थू।
उन की कृपा से ग्रंथपुर्ती पाऊ। और श्रोते वैभव शांती पाये ।।१३ ।।
जीस की कान्ति काली साँवली। जीस ने जीव्हा बाहर निकली।
आँखों में जीस के चमक निराली। महकाया प्रचंड जीस की ।।१४।।
वह महाकाली जो महाशक्ती। जो बुराईयों का विनाश करती।
डरते है जीस से पिशाच भी। अगला आशीर्वाद चाहू उस का ।।१५।।
बुरे शक्तियों से और संकटों से। भक्तों को बचाए।
ग्रंथ लिखने मदत करे। यही प्रार्थना चरणों में ।।१६।।
अब उस त्रिमूर्ती को। ब्रह्मा विष्णु महेश को।
जग का नियंत्रण करे जो। उन का मन से स्मरण करू ।।१७।।
जो उत्तरदायी है। सृष्टी के निर्माण के लिए।
सृष्टी के जन्मदाता कहलाये। कमल पर बैठे हुए ब्रह्माजी ।।१८।।
जिन को चार शीश है। जीन में वेद है बसे हुए।
आशीष चाहू ग्रंथपूर्ती के लिए। जगद्पीता ब्रह्माजी से ।।१९।।
उन के मानसपुत्र सात। सप्तर्षी नाम से ज्ञात।
जो पावन करे साक्षात्। ज्ञानी को और ज्ञान को भी ।।२०।।
वसिष्ठ और भारद्वाज। जमदग्नी, गौतम के साथ।
अत्री, विश्वामित्र कश्यप। यह है नाम उन के ।।२१।।
उन सप्तर्षी से। याचना करू मै।
ग्रंथ उत्तम बनवाये। मुझ अज्ञानी से ।।२२।।
मुनीवर्य श्रीमत् व्यास। जिन्हों ने रचा महाभारत।
जीन का लेखनिक स्वयं श्रीगणेश। उन से ग्रंथपूर्ती की याचना करू ।।२३।।
ब्रह्म जैसे निर्माणकर्ता। वैसे विष्णु पालनकर्ता।
इस सारे विश्व का। अब उन का स्मरण करे ।।२४।।
जग का तारण करने के लिए। स्वयं विष्णु अवतार ले।
दशावतार प्रख्यात है। सारे विश्व में ।।२५।।
पहेला मत्स्यावतार सब से। रक्षण करे इस अवतार में।
पृथ्वी का महापूर से। जब जग डूबने लगा था ।।२६।।
तब मत्स्य बनकर पधारे। और मानव वंश बचाए।
चारो वेद भी बचाए। जीन में बसा है ज्ञान सारा ।।२७।।
दूसरा हुआ कुर्मावतार। जीस में कछुआ बन कर।
देवों की सहायता कर। असुरों को पराभूत किया ।।२८।।
जब देव और असुर। मंथन कर रहे थे मिल कर।
तब खौला समुद्र। कुर्मावतार प्रकट हुआ ।।२९।।
फिर वराह रूप में। पृथ्वी को बचाए।
अपने दन्त पर उठाये। समुद्र के तल से ।।३०।।
चौथा अवतार नरसिंह। जीस में धरा नर का देह।
सिंह का धारण किया मूह। बचाए भक्त प्रल्हाद को ।।३१।।
हीरण्यकश्यपू ने। वर प्राप्त किया छल से।
मृत्यू मिले ऐसे। निवेदित अवस्था में ।।३२।।
ना नर या जानवर से। न कोई अस्त्र या शस्त्र से।
न घर के अन्दर या बाहर आये। मृत्यू दीन या रात में ।।३३।।
अभिमान करे इस वर से। सुभक्तों को दे यातनाये।
भगवान से उच्च समझे। स्वयं अपने आप को ।।३४।।
हीरण्यकश्यपू महाक्रूर। प्रल्हाद विष्णूभक्त थोर।
यातना दे उसे घोर। अन्याय और अधर्म से ।।३५।।
तब नरसिंह रूप में। अपने महान भक्त को बचाने।
अवतार ले इस जग में। वह कृपालु विष्णुजी ।।३६।।
नरसिंह जो ना नर न जानवर। सांझ समय द्वार की चौकट पर।
अपने नखों से पेट फाड़ कर। वध करे हीरण्यकश्यपू का ।।३७।।
पांचवे अवतार में। बौने का रूप ले।
वामन नाम लिए। आये बली के द्वार पर ।।३८।।
बली राजा असुरों के। दानशूर परमवीर थे।
इन्द्रासन का मोह न टाल सके। सारा जग जीत के भी ।।३९।।
बली की परीक्षा लेने। और इंद्र को बचाने।
वामन अवतार बने। पहुंचे विष्णु बली के द्वार ।।४०।।
दान में जमीन माँगी। तीन कदम जितनी।
हसकर कहे बली। “रखे अपने तीन कदम” ।।४१।।
तब प्रकटे बड़े स्वरुप में। पृथ्वी व्यापी एक कदम में।
आकाश व्यापा दुसरे कदम में। पूछे “तीसरा कहाँ रखु?” ।।४२।।
तब दानवीर बली कहे। “अपनी इच्छा पुरी करे।
तीसरा कदम सर पर मेरे। बगैर झिझक रखे आप” ।।४३।।
असुर होने के बाद भी। निभाये सत्य धर्म बली।
प्रसन्न हुए विष्णुजी। बली की वृत्ती देख कर ।।४४।।
पाताल का राज्य सौपे। और भविष्य में देंगे।
स्वर्ग भी, यह वचन दे। वामन अवतारी श्रीविष्णु ।।४५।।
छट्टे अवतार में। परशुराम बने।
जब क्षत्रियों ने। ब्राह्मणों को परेशान किया ।।४६।।
क्षत्रियों का गर्व हरने। ब्राह्मण रूप में।
पधारे इस जग में। नि:क्षत्रीय की पृथ्वी ।।४७।।
सातवे अवतार में। विष्णु राजा राम बने।
जो आये अधर्म से लड़ने। एकवचनी एकपत्नी रहे ।।४८।।
अहिल्या को मोक्ष दिलाये। हनुमान की दस्यभाक्ती स्वीकारे।
बिभीषण को लंका दिलाये। रावण को हरा कर ।।४९।।
श्रीकृष्ण अवतार आठवां। जो जगद्गुरु कहलाया।
जीस ने जग में ज्ञान बाटा। भगवत् गीता के माध्यम से ।।५०।।
अर्जुन को कुरुक्षेत्र में समझाये। धर्मयुद्ध करने के लिए।
युद्ध अधर्म के विरुद्ध है। सगे सम्बन्धियों के विरुद्ध नहीं ।।५१।।
द्रौपदी की लाज रखी। अर्जुन के बने सारथी।
निभाई सुदामा से दोस्ती। दानवों को पराभूत किया ।। ५२ ।।
बुद्धावतार जो नववा। जीस ने त्याग का सन्देश दिया।
अहिंसा का पालन किया। जग उद्धारा ज्ञान से ।। ५३ ।।
कलकी अवतार दसवा। जो अभी न प्रकट हुआ।
इन सारे दशावतारों का। स्मरण कर लिखना आरंभ करू ।।५४।।
अब नमन करू शिवजी को। उन भोलेनाथ को।
जीन से वरदान प्राप्त हो। ग्रंथ लेखन के लिए ।। ५५ ।।
यह शिवजी ज्ञात है। सृष्टी के संहार के लिए।
साथ विश्व निर्माण के। संहार भी है महत्वपूर्ण ।।५६।।
अब करु मधुकरजी को वंदन। जीन्होने जानकी चरीत्र लेखन।
कीया संपुर्ण सर्व प्रथम। चाहू उन के आशीष।।५७।।
सारे देवाताओं को नमन कर। सारे संतों का स्मरण कर।
गुरु पौर्णिमा के अवसर पर। जानकी छाया का आरंभ करू ।।५८।।
जैसे श्री साईं शिर्डी में। गजानन महाराज शेगांव में।
और स्वामी अक्कलकोट में। दत्तावातारी प्रकट हुए ।।५९।।
वैसे ही माँ जानकी। जो देवी का स्वरुप थी।
इस जग में प्रकट हूई। भक्तों के दुःख हरने ।।६०।।
जब दुख सहे जनता। कैसे शांत रहे जगाद्माता।
उस के ह्रदय में जागी ममता। सो अवतरे इस जग में ।।६१।।
भारत के महाराष्ट्र राज में। पोलादपूर नामक गाव में।
रामकृष्ण चित्रे के परिवार में। स्वयं जगदम्बा अवतार ले।।६२।।
दुर्गा नाम रखा माता पिता ने। बहोत देखे थे सपने।
पर तोड़े सारे नियती ने। भाग्य कौन बदल पाये।।६३।।
न्याय निराला इस जग का। सुवर्ण की हो अग्निपरीक्षा।
तब जा कर जग माने सच्चा। कसे हुए सुवर्ण को ।।६४।।
वैसे ही हुआ संग दुर्गा के। अग्नि से गुज़रना हुआ संकटों के।
सामना करना पड़ा डट के। उस देवी को मनुष्य जीवन में ।।६५।।
माँ का देहांत हुआ। नाना नानी के पास भेजा।
मालुस्ते गाँव में था। नानाजी का घर ।।६६।।
नाना नानी के संग गुज़रा। अनाथ दुर्गा का बचपन सारा।
समय कटा भला बुरा। माँ के देहांत के पश्चात ।।६७।।
मालुस्ते गाव में। नाना नानी के छाव में।
दुर्गा बड़ी हो लाड प्यार में। शुक्ल पक्ष के चन्द्र की तरह।।६८।।
दुर्गा के निराले थे लक्षण। पूजा अर्चना भक्ती ध्यान।
इसी में रहे हमेशा मग्न। अलग थी सारे बच्चो से ।।६९।।
मालुस्ते गाव की ग्रामदेवता। जीस का मालजाई नाम था।
उस मंदीर का प्रघात था। कुंवारी कन्या पूजा करे ।।७०।।
पांच वर्ष की छोटी दुर्गा। नियमीत करे उस की पूजा।
मन में ना कोई स्वार्थ दूजा। फूल भावार्पण करे।।७१।।
कभी नाना नानी से। दूध मांगे ज़ीद से।
बच्ची की ज़ीद कौन टाल सके। इस लिए दूध दे दुर्गा को।।७२।।
दूध ले जाए मंदीर में। अर्पण करने की भावना से।
पर नानाजी समझ न पाये। छोटी दुर्गा का दूध ले जाना।।७३।।
नानाजी चिंतित हो शंका से। पीछे चले दुर्गा के।
मंदीर तक छुप छूप के। दृश्य देख कर अचंबित हुए।।७४।।
दुर्गा पुष्प अर्पण करे। मालाजाई माँ को नमन करे।
फीर शिवलिंग की ओर मुड़े। दूध रखे वहीँ पर।।७५।।
पता न चले कहाँ से। भुजंग नाग प्रकट हुए।
दूध पीकर चल पड़े। वंदन कर चली दुर्गा।।७६।।
रोज़ नानाजी करे पीछा। और देखे वही कीस्सा।
तब उन्हें हुआ अंदाजा। दुर्गा की दैवी क्षमता का।।७७।।
मलुस्ते ग्राम की सीमा पर। एक पेड़ था सुन्दर।
सारे बच्चे वहां जाकर। छुपाछुपी खेलते।।७८।।
इस पेड़ पर और आसपास। सापों का था निवास।
मधुर फलों की लिए आस। बच्चे चढना चाहे पेड़ पर।।७९।।
पर सापों का था डर। बच्चे ना चढ़ पाए पेड़ पर।
दुर्गा पर ना हो कोई असर। वो चढ़े बेझिझक हो कर ।।८०।।
जैसे दुर्गा बढे आगे। सारे साप डर कर भागे।
दुर्गा को ना डर लागे। मधुर फल बाटे बच्चों में।।८१।।
नाना नानी को हुआ ज्ञात। यह सारा वृतान्त।
दींन में तारे चमकत। उन की आँखों के सामने।।८२।।
तब दुर्गा को डराए। सारे बच्चो को धमकाए।
सीमा की ओर न जाए। और कहे बच्चों से।।८३।।
“भूतो और पिशाच की। उस पेड़ के पास है बस्ती।
इसी लिए न करे मस्ती। खेलने ना जाओ सीमा की ओर”।।८४।।
ताके बच्चे ना जाए दूर। मलुस्ते ग्राम की सीमा पर।
सापों से भरे पेड़ पर। आसपास ही खेले वे।।८५।।
ऐसे बीते कुछ महीने। आये नवरात्री के दींन सुहाने।
तो सीमोल्लंघन करने। मन किया बच्चों का।।८६।।
तो सारे मील कर गए घूमने। उस पेड़ की छाया में।
शाम को बच्चे लौटे घर में।पर दुर्गा ना घर पहुँची।।८७।।
नाना नानी डर के मारे। देवताओं का स्मरण करे।
भयंकर रात्र प्रहर बेचारे। कहाँ ढूंढे दुर्गा को ।।८८।।
ढूंढें सारे गाववाले। पर दुर्गा कहीं ना मिले।
शंकित मन भटकता चले। सोचे श्वापद ने ना खाया हो।।८९।।
गाव में सारे हो दु:खीत। नाना नानी करे आकांत।
क्यों भगवान देखे अंत। बच्ची मीले और कुछ ना चाहे।।९०।।
नवरात्री में रही दुःख की छाया। खुशखबरी ले दशहरा आया।
एक गाववाले ने कथन किया। दुर्गा का वृत्तांत।।९१।।
कहे “कडापा गाँव के। मंदीर में काली माँ के।
देखा दुर्गा को मैंने। चलो, झट से जायें वहाँ”।।९२।।
नानाजी ने सूना जैसे। रहा न गया उन से।
खबर सून कर दौड़ पहुंचे। जिगर के टुकड़े को देखने।।९३।।
कडापा गाव के मंदीर में। दुर्गा थी निद्रावस्था में।
काली माँ के सान्निध्य में। नानाजी भागे उस की ओर।।९४।।
खुशी से दुर्गा को जगा कर। घर ले आये शुभ अवसर पर।
ईश्वर के माने आभार। दुर्गा को लौटाने के लिए।।९५।।
पूछे उस से “थी कहाँ पर”। जब दुर्गा दे इस प्रश्न का उत्तर।
आश्चर्य करे सारे सुनकर। कहा सब से दुर्गा ने।।९६।।
“रही देवियों के संग। खूब जमा रास का रंग।
गरबा खेले सब होकर दंग। देवियाँ उठा ले गयी थी मुझे।।९७।।
मीष्टान्नो का भोजन कीया। नवरात्री का आनंद लिया।
वापस लौटने का मन ना हुआ। पर देवियों ने बात न मानी।।९८।।
मैने कहा देवियों से। “वापस न जाना चाहूं मै।
कृपया पृथ्वी पर ना भेजे। मुझे रहना है आप के पास”।।९९।।
प्यार से कहा देवीयो ने। मुझे धरती पर लौटने।
दुखी जनों को मार्ग बताने। हरने उन के संकट।।१००।।
कहे “हम रहेंगे संग तुम्हारे। सुख दुःख सहेंगे सारे।
जीवन के युद्ध लड़ेंगे न्यारे। जीत ही होगी तुम्हारी”।।१०१।।
नींद से जागी जब मै। नानाजी थे साथ में।
वापस आयी इस जग में। ऐसा अनुभव कथन करे।।१०२।।
सुनकर ऐसा अनुभव। नाना नानी करे आश्चर्य।
सोचे कैसे पाले यह। अनमोल रत्न गरीबी में।।१०३।।
ऐसी यह महाशक्ती। दुर्गा में अवतरी थी।
कर्म सिद्धांत फिर भी। हमेशा अपना काम करे।।१०४।।
इतनी महान होकर भी। पैदा हुई लेकर गरीबी।
कर्म न चुके किसी के भी। यह न्याय ईश्वर का।।१०५।।
श्रीराम को वनवास न चुके। माता पिता श्रीकृष्ण के।
होकर भी कारावास भुगते। वसुदेव और देवकी।।१०६।।
दुर्गा के बाल्यावस्था का वर्णन। करते हुए कथन।
भर आये मेरा मन। उत्साह और प्रेम से।।१०७।।
ऐसे बीता जानकी माँ का बचपन। मन से जाए जो उसे शरण।
उस पर बरसे कृपाघन। उस जगद्माता का।।१०८।।
।। ईती श्री जानकी छाया ग्रंथस्य प्रथमोsध्यायः समाप्तः।।
।। शुभं भवतु।।
।।श्रीरस्तु।।
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